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मैं चाँद पर कविता नहीं गाऊँगी / अनुराधा सिंह

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तुम जब आखिरी साँस और संध भी मूँद दोगे
तो मैं दीवार के उस पार से एक कविता गाऊँगी
 
खेत और खलिहान के बीच गिरी हुई बालियों की
काँसे के कम होते बर्तनों और खाली होते कुठलों की
खबरों से छूट गयी नींद की
मैं गोल रोटी की कविता नहीं गाऊँगी
कि सुक्खी को भूख लग आएगी
 
लंबे दिनों और गुनगुनी रातों पर
पुरानी किताबों और उनमें दबे गुलाबों पर
तुम्हारी उँगलियों से मेरे पोरुओं के फासले पर
मैं तुम्हारे जाने वाले दिन पर कविता नहीं करूँगी
कि मुझे तुम्हारे न लौटने का दुख साल जाएगा
 
कविता करूँगी
शेर से दौड़ कर जीत लिए हिरण की
बहेलिये के जाल से छूट निकले कबूतर की
अस्त व्यस्त जंगल और दंभी पहाड़ की
मैं सूखी हुई नदी की कविता नहीं करूँगी
कि दोनों किनारे मिलने की हठ पे आ जायेंगे
 
और मैं करती ही जाऊँगी कविता
बरसात में धुले सफ़ेद मढ़ो पर
स्कूल जाते हुए गुलाबी रिबन पर
साँवली लड़कियों और उनकी उपेक्षित इच्छाओं पर
मैं चाँद पर कविता नहीं गाऊँगी
कि सुक्खी को फिर रोटी की याद आ जाएगी।