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चुप / विवेक चतुर्वेदी
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किसी रोज़
नदी के निर्जन घाट पर
चुप...बैठ रहेंगे साथी
उस शाम
तुम नहीं कहोगी
...शांत है ये जल
मैं नहीं कहूँगा
...अच्छा है इस शाम यहाँ होना
नदी की धार को
पैरों से छूता
एक पंछी
हू तू तू...बोलता
उड़ जाएगा
हम.. कुछ भी न कहेंगे
बहुत सा जो खूबसूरत
मिट रहा है
इस दुनिया से
चुप...उनमें से एक है साथी।