भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीतर ही भीतर / आनंद खत्री

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:44, 6 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आनंद खत्री |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
गुदगुदा के पन्ने पलटता है
कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
अँगुलियों से
वर्ण-माला छूता है
कागजों की करवट बदलता है
रोकता है पलटने से
जूड़े की कांटी से
कौन पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर
महसूस होता है कहीं पर
कोई पढ़ रहा है मुझको
भीतर ही भीतर

शब्दों की धरा में
धंस सा गया था
हक़ कागजों को कलम से
लिखता गया था
खुद को ज़ाया किया है बहुत
मैंने
माया को कागज़ पे रचकर
कौन पढ़ रहा है मुझको
मेरे भीतर ही भीतर
हर बात जो लिखता था
हर बात जो कहता हूँ
वो सच नहीं
सपना भी नहीं, मगर
अल्फ़ाज़ों के मिलने जुलने से
हालात बदलते थे
सो लिखता था
हर मोड़ नए शब्द
शब्दों से मिलते थे
सो लिखता था
एहसासों का स्वाद है मुझको
सो कहता हूँ
कोई भीतर ही भीतर
पढ़ रहा मुझको
जानता हूँ।