Last modified on 8 दिसम्बर 2017, at 13:54

सुबह नहीं होती अब / छवि निगम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:54, 8 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=छवि निगम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नींद के खुलते ही
सुबह सुबह रोजाना ही...
और कैसे फौरन
खिलखिलाता
आंखमिचौली सा खेलता
गोलमटोल
मासूम सा सूरज
मेरी खिड़की की गोदी में लपक आता था।
अब...
तप जाता है
थक जाता है
हाँफते हाँफते बेचारा
चढ़ते चढ़ते
दस मंजिलें एक के बाद एक
सामने उग आई
उस नई इमारत की।
मेरी भी निराश खिड़की
बन्द हो चुकती है
तब तक।