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वातायन / छवि निगम

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अंदर हूँ मैं
देहरी की लक्ष्मण रेखा के इस पार
शहतीरें साधे
दीवारों को बांधे
आँगन ओढ़े
पैर के अगूंठे से जमीन कुरेदते
छत की आखों से लाज छिपाये
प्रतीक्षा में...
बाहर भी मैं ही हूँ
देह की देहरी के उस पार
बाहों में बादल
बिजली का आँचल
हवाओं की पायल
सपनों की ऊँची परवाज भरते
आखों में नीला आसमां सजाये
प्रतीक्षा में...
इक वातायन के।