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रोटियाँ / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

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रोटियाँ बेलती औरत के
हाथ की लकीरें
उभर आती हैं लोइयों पर
और उसकी किस्मत
कैद हो जाती है रोटियों में

रोटी जैसी नर्म औरत
तप्त काली धरती पर सिंकती
करती अपना आकार ग्रहण
मीठी-स्वादिष्ट या करारी
जहाँ से चाहे तोड़ लो
मर्जी बस तुम्हारी

काले तवे पर घूमती
शून्य से चलकर शून्य तक
पहुँच जाती हैं अक्सर
रोटियाँ या औरतें खुलकर खुश नहीं हो सकतीं
उनका अधिक फूलना
देता उनको मौत का पैगाम

बनाते-बनाते रोटियाँ
जुड़ गया है रोटियों से
औरत का जनम-जनम का साथ
उसी में निहित है उनका कीमती इतिहास
भूगोल बेरंग
पढ़ने दो दिन-रात
उन्हें रोटियों की भाषा
खेलने दो रोटियों के झुनझुने से
औरतों को रचने दो
घर की कलात्मक दीवारें

उन्हें जो नहीं बनाते
कभी रोटियाँ
अच्छी लगती हैं सिर्फ़ गर्म रोटियाँ
ठंडी रोटियों पर चढ़ जाए न उनकी त्योरियाँ
इसलिए चूल्हे की आग में तपती हैं औरतें
फरमाइश पर निखरती हैं
उपजाती हैं मिट्टी की तरह
उन्नत फसलें
इंकार करेंगी तो
पकाई भी जा सकती हैं
तंदूरी रोटी की तरह
फिर भी
इंकार है जिन्हें
उनपर तालिबानी हुक्मरानों की नज़र है
किताबें बाँट रही हैं मलालाएँ
विद्रोहिणी सीताएँ कर रही हैं
पुरुषोत्तम से सवाल
रज़ियाएँ जानती हैं अपनी गद्दी हासिल करना
अहिल्याएँ पत्थर बनने को अब नहीं तैयार
माँग रही हैं सब के सब
पिछले चार हज़ार वर्षों का हिसाब
चीख रही हैं कई मौन होकर भी
रोटियों के अलावा भी
रचना है हमें
रोटियों से कहीं अधिक सुंदर संसार।