भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्यार एक स्मृति है : चार / इंदुशेखर तत्पुरुष
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:33, 26 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इंदुशेखर तत्पुरुष |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जब भी आता हूं तुम्हारे शहर
सोचता हूं हर बार
तुम्हारे घर के सामने से गुजरूं
और दिख जाऊं बिल्कुल अप्रत्याशित
घर के सामने ठेले वाले से सब्जी खरीदती हुई
या छत पर कपड़े सुखाती हुई तुमको
यह जताते हुए जैसे
जानता ही नहीं कि आजकल
तुम रहती हो इसी गली में।
सोचता हूं खटखटा दूं एक फोन
बरसों बाद
और चोगा रख दूं चुपचाप
उधर से यदि
आये आवाज कोई और।
क्या तुम्हें भी याद होगी अब तक!
मेरी आवाज फोन पर
और हैलो के जवाब में
कलाई के कंगनों को जोर से खनखनाना।
शाम के धुंधलके में
सोडियम लैंपों की चकाचौंध से वंचित
रामनिवास बाग की संवलायी सी
वह कोने वाली बेंच
हर बार पूछती है तुम्हारा हाल
शहर के सारे कामों से निपट
जब पसरता हूं उसकी गोद में।