Last modified on 30 दिसम्बर 2017, at 16:57

पीली और उदास आँखें / पंकज सुबीर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:57, 30 दिसम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंकज सुबीर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

न जाने कब
उग आया है
एक मोतियाबिंद
पीली और उदास आँखों में
धुँआ झेलकर
समय का
पीली हो गईं
उदास आँखें...
ये आँखें
हमेशा से नहीं थीं
ऐसी,
कभी भरा रहता था
ख़ूब काजल
इनके किनारों पर
और दूध की तरह थी
इनकी सफ़ेदी,
झिलमिलाकर
चमकती थीं कभी ये
चूँकि आँखें थीं
इसलिए देखती थीं
सपने भी
प्रेम के सपने...
उन दिनों आँखें इश्क़ में थीं
ख़ूब दौड़ा करती थीं
इस सिरे से
उस सिरे तक
फिर धीरे-धीरे
गति मंद हुई
और आँखें
उदास होती चली गईं।
सपने बुझते गए...
बुझ जाती है
सपनों के ही साथ
सफ़ेदी भी
पीलापन वैसे भी
चाहता है सोख लेना
पृथ्वी पर फैली
सारी सफ़ेदी को
क्योंकि सफ़ेदी
झिलमिलाने का गुण रखती है
और माना जाता है
झिलमिलाना भी
विद्रोह
ठीक उसी प्रकार
जिस प्रकार
विद्रोह माना जाता है
सपने देखना
विद्रोह माना जाता है
इश्क़ करना...
आँखें ख़ुद भी नहीं जानती
कि वो कब बुझीं
कोई निश्चित तारीख़ नहीं है
कि हाँ इस तारीख़ से
ये सफ़ेद से पीली होना शुरू हुईं
किन्तु...
बस ये कि
पीलापन बढ़ता गया
सफ़ेदी सिमटती गई
वही सफ़ेदी
आज सिमटकर बन गई है
एक बूँद
और उभर आई है
पुतली के अंदर
मरे हुए सपनों की
लाश की तरह
तैर रहा है
आज एक मोतियाबिंद
उन पीली और उदास आँखों में
आँखें अब भूल गईं हैं
काजल का स्वाद
सपनों का स्वाद
और प्रेम का भी...