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बहुत दिनों बाद / निरुपमा सिन्हा

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बहुत दिनों बाद
अपने स्वप्न को
उतारती हूँ ओस से भींगे हुए
हरी दूब पर
शीतल पैरों की सुर्ख थाप
जो वास्तविकता के
धरातल को
कर देते हैं गुलाबी
दबे जाने की पीड़ा थी हरी घास की
दुःखती रातों में!

बहुत दिनों बाद उठाती हूँ
एक पुस्तक
पढ़ जाना चाहती हूँ
आदि से अंत तक
अध्याय दर अध्याय
अटकती रूकती हूँ हर भाव पर
वही सब कुछ लिखा था
जो मैं लिखना चाहती हूँ
ख़ुद को बंद करने की धुन में
पुस्तकों की ढेर में ठूंस आती हूँ लिखा जाना!
बहुत दिनों बाद
उतर आती हूँ
फूलों की आवाज़ों में
नापती हवाओं को
बाँधने अपने प्यार में
तभी
मेरी सबसे छोटी ऊँगली
लपटने लगती है दिन के हँसते हुए
नवजात को
स्थगित कर देती हूँ
पार जाना
....... उस समुद्र के
जो डूब कर नहीं
तैर कर पार करना होता है!

बहुत दिनों बाद देख रही हूँ
भोर को
एक तितली की तरह
चारो दिशाओं के परदे को उठाते हुए
अपने मुलायम सुनहरे पंखों से
हौले हौले भर रही है
गुनगुनाहट आशाएँ
मेरी ज़िंदगी की लय में!!