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लड़ाई अपने आप से / निरुपमा सिन्हा

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शरीर के
किसी ऊभरे हुए हिस्से पर
एक गाँठ का
निकल आना
बदल देता है
जीवन के शब्दों का शब्दकोश
शामिल हो जाता है
हस्पताल
मेमोग्राफी
बायोप्सी
रेडियेशन
कीमो
और
ऐसी ही न जाने कितनी
शब्दावलियाँ
जिनके उच्चारण
मुश्किल से होते थे
जब
हमने सिर्फ प्रेम पढ़ा
प्रेम जिया था
तमाम सच्ची कहानियाँ
उत्साह से सुनाती है
भोगी हुई ज़िंदगियाँ... .
उसके
आँसुओ को पोछ
काँधा थपथपाती सखियाँ
हौसलों को उड़ान देते
कह जाती हैं
"बहुत बहादुर है तू जीतेगी ये जंग”
कष्टों की पाठशाला से
चीखती है वो
कोई सुन नहीं पाता
एक फीकी मुस्कान
तरबतर अहसासों से
वो लिपट जाती है
अपने अतीत से
मेरी रातों की नींद
शामिल हो चुकी है उसकी पीड़ा में
उससे मिल कर बताना चाहती हूँ
कि गुज़र रही हूँ मैं भी
तुममें बह कर
लेकिन”कहानी सुनना"
और
"कहानी का पात्र ख़ुद बनना”
जीते जी मार देता है
उस इंसान को!