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चीटियाँ / निरुपमा सिन्हा
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मेरे आसपास
टहलती हैं
चींटियाँ
भूरी लाल और काली
भूरी कितनी मिलती थी
विपत्तियों से
हमें डरा धमका
दबे पाँव
निकल जाती हैं
अहसास दिला
कि निश्चिन्त न होना
लाल चिपट काया से
निकाल लेती है
अंदर की चीख
जिसे हमने वर्जनाओं में
लपेट रखा था
सहनशक्ति के नाम पर...
काली को हमेशा जल्दी
होती है गन्तव्य तक
पहुँचने की
निगरानी कर
हमारी भावनावों की
चल देती
चंचल सी
उन कन्दरावों में
जहाँ हमने भी सहेजे होते हैं
सफेद उजले भविष्य
उसके अण्डों की तरह!!