भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वयंनाशी / त्रिभवन कौल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:16, 26 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिभवन कौल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिव तांडव का रूप नया यह
प्राकृतिक आपदा का स्वरूप नया यह
तबाही का मंज़र, कुदरती कहर है
मानवी भूलों का प्रतिशोध नया यह

मोसमी बारिश भला ऐसी रोद्र कहाँ थी?
बाढ़ भूस्खलन जैसी त्रासदी कहाँ थी?
मृतकों की संख्या हताहतों से जब अधिक हो
केदारनाथ, गौरीकुंड की ऐसी दास्ताँ कहाँ थी?

खंजर सीने में खुद भोंक चुके हैं
जंगलों को कंक्रीट बना चुके हैं
भू-ताप वृद्धि के कारण भी हम हैं
इस ताप में अब झुलस चुके हैं

व्यापारिक कारण जब प्रधान हो जाएँ
अतिक्रमणों का सामान हो जाये
पर्यावरण की जब करते हम हत्या
इसके श्राप से कैसे बच पायें?

ईश्वर को अब दोष क्या देना
जो बोया है वही काटना
संभलो संभालो अब भी समय है
दशक उपरांत यह तो तय है,

बलिवेदी पर तब देश यह होगा
माँ प्रकर्ति का आरोप यह होगा
जिसको जनम दिया था मैंने
उसका ही संहार किया है
अब मुझसे क्या आशा रखते
खुद तुमने अपना नाश किया है
खुद तुमने अपना नाश किया हैI