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आशा / सच्चिदानंद प्रेमी

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अलग नहीं मानो तुम मुझको,
           मेरे स्वर में बात तुम्हारी।
 नयन-नयन की ज्योति बनेगी,
               मेरे ही मन की चिंगारी।
 जो भी पीड़ा जहाँ जागती,
        मेरा ही अंतर रोता है।
 छन भर तुमसे खो जाएँ तो,
मेरा मन सब कुछ खोता है।
हास–रुदन जो भी है जग में,
मुझमे उसका रूप निहारो।
दुखियों की सब पीर समेटे,
आऊंगा मैं तनिक पुकारो।
मैं तो हूँ बस वही की जिसमें,
रूप तुम्हारा झाँक रहा है।
 मेरे मन का सजग चितेरा,
चित्र तुम्हारा आँक रहा है।
 दुनिया की आँखे है निर्मम,
देख नहीं इसको हैं पाती ।
 भौतिकता की घन-छाया में,
जगने से भी है सकुचाती।
 रोज सुबह जब ऊषा आती,
रूप धरा का सज जाता है।
फूल-फूल पर थिरक- थिरक कर,
मेरा ही मन मुस्काता है।
रजनी में जब किरण सिमटकर,
  अन्तरिक्ष में खो जाती है।
चंदा के होठो से जब भी,
प्रकृति सुधा-रस बरसाती है।
 मैं ही हूँ जो उन्हें देखकर,
सब को मन का गीत सुनाता।
 उखड़ रही आशा को जगकर,
  जगने का संबल दे जाता।
 मेरी सात्विक वाणी खुलकर,
भूतल की पहचान बनेगी।
 सत्य–व्रती जीवन के पथ पर,
आशा-बल-अभिमान बनेगी।