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हे विहंगिनी / भाग 7 / कुमुद बंसल

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61
बेबस पत्ता
जो गिरा पतझड़
है रहा सड़,
कीट-आहार बन
देता उन्हें जीवन।

62
पतझड़ में
सूखे पत्ते झड़ते,
बेचारा वृक्ष
दृढ इच्छा मशाल,
तले व्योम विशाल।

63
अदभुत है
पतझड़ सौन्दर्य,
घूँघट हटे,
नभ की पृष्ठभूमि
विनम्र वृक्ष खड़े।

64
तापे ये ज्येष्ठ
माधुर्य तिरोहित,
शुष्क हैं कण्ठ,
शीतलता ले हुआ
निशापति उदित।

65
धीरे-धीरे से
उतरी है रजनी,
ओढ़ चुन्दड़ी,
शीश सोहे है शशि
पग-नूपुर ध्वनि।

66
रात-दुल्हन
चाँद बना है दूल्हा,
झींगुर बीन
उल्लू ढोल बजाएँ,
तारक इठलाएँ।

67
तारे गिनना,
ध्रुवतारा देखना,
श्वेत चादरें
खुली छत पर सोना,
छूटा स्वप्न सलोना।

68
अर्घ्य प्रेम का
निशा देती चाँद को,
लज्जा अक्षत
प्रेम-रोली मस्तक
फेरे लेता प्रेयस।

69
दिवस बीता,
तिमिरमयी धरा,
लो दीप जले,
तिमिर-हन्ते चले
अन्धेरा डर मरे।

70
तारों की छाँह
टिमटिमाते दिल,
नवल गान,
रश्मियों की मस्त मस्ती
है पावस वितान।