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जटिल प्रश्न पर्वतवासी का / कविता भट्ट

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शिवभूमि बनी शवभूमि अहे!
मानव-दम्भ के प्रासाद बहे।
दसों-दिशाएँ स्तब्ध, मूक खड़ी,
विलापमय काली क्रूर प्रलय घड़ी।
क्रन्दन की निशा-उषा साक्षी बनी,
शम्भु तृतीय नेत्र की जल-अग्नि।
पुष्प-मालाओं के ढोंगी अभिनन्दन,
असीम अभिलाषाओं के झूठे चन्दन।
न मुग्ध कर सके शिव-शक्ति को,
तरंगिणी बहाती आडंबर-भक्ति को।
निःशब्द हिमालय निहार रहा,
पावन मंत्र अधरों के छूट गए ।
प्रस्तर और प्रस्तर खंड बहे,
सूने शिव के शृंगार रहे।
जहाँ आनन्द था, सहस्र थे स्वप्न,
विषाद, बहा ले गया, शेष स्तम्भन।
कुछ शव भूमि पर निर्वस्त्र पड़े,
अन्य कुक्कुर मुख भोजन बने,
भोज हेतु काक -विवाद करते,
गिद्ध कुछ शवों पर मँडराते।
अस्त-व्यस्त और खंडहर,
केदार-भूमि में अवशेष जर्जर।
कोई कह रहा, था यह प्राकृत,
और कोई धिक्कारे मानवकृत।
आज प्रकृति ने व्यापारी मानव को,
दण्ड दिया दोहन का प्रकुपित हो,
उसकी ही अनुशासनहीनता का।
कौन उत्तरदायी इस दीनता का?
नाटकीयता दु्रतगति के उड़न खटोलों से,
विनाश देखा नेताओं ने अन्तरिक्ष डोलों से,
दो-चार श्वेतधारियों के रटे हुए भाषण,
दिखावे के चन्द मगरमच्छ के रुदन।
इससे क्या? मंथन-गहन चिंतन के विषय,
चाहिए विचारों के स्पंदन, दृढ़-निश्चय।
क्योंकि जटिल प्रश्न पर्वतवासी का बड़ा है,
जो देवभूमि-श्मशान पर विचलित खड़ा है।