विवश व्यवस्था / कविता भट्ट
विवश व्यवस्था
समय की गति में बहती रही है,
दलालों के हाथों की लंगड़ी व्यवस्था
निशिदिन कहानी कहती रही है,
बैशाखियों से कदमताल करती व्यवस्था।
सुना है- अब तो गूँगी हुई है,
मूक पीड़ाओं पर मुस्कुराती व्यवस्था।
बहुत चीखता रहा आये दिन भीड़ की ध्वनि में,
फिर भी, सुनती नहीं निर्लज्ज बहरी व्यवस्था।
विषमताओं पर अट्टाहास, कभी ठहाके लगाती,
समाचार-पत्रों में कराहा करती झूठी व्यवस्था।
यह नर्तकी बेच आई अब तो घूँघट भी अपना,
प्रजातन्त्र-राजाओं की ताल पर ठुमकती व्यवस्था।
चन्द कौड़ियों के लिए कभी इस हाथ,
भी उस हाथ, पत्तों- सी खेली जाती व्यवस्था।
बहुत रोता रहा था, वह रातों को चिंघाड़कर,
झोंपड़े जला, दिवाली मनाया करती व्यवस्था।
रात सारी डिग्रियाँ जला डालीं उसने घबराये हुए,
देख आया था, नोटों से हाथ मिलाती व्यवस्था।