भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम और मैं / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:38, 5 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह=मन के...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निर्जन नीलांचल की नदी मैं
तुम प्यासे पथिक प्रेम प्रगाढ लिये।
मैं सुरभित स्वप्नों की स्वर्ण-शृंखला
तुम प्रहर प्रशान्त पुण्य प्रकाश लिये।
विरह वेदना रातों की मैं,
तुम प्रतीक्षित प्रणय के प्रयास लिये।
मैं अप्रकट अधखुले अधरों की कामना,
तुम प्रफुल्लता का प्रशस्त प्रवास लिये।
निःसंग किंतु निरंतर गति मैं,
तुम प्रखर प्रतिछाया का प्रतिभास लिये।
मैं निष्पाप निश्छल निमित्त निबंधन,
तुम प्रकृष्ट प्रयोजन के प्रत्याश लिये।
लतिका धरणीतल से उगती मैं,
तुम प्लक्ष (वृक्ष) के प्रबल प्रसार लिये।
मैं मूक मंत्र मानसिक जप में,
तुम उच्चारित प्रार्थनाओं का प्रसाद लिये ।
मंद मधुर लयबद्ध गीत मैं,
तुम उन्मुक्त गान का प्रतिध्वनित प्रहास लिये।