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अंतिम कामना / कविता भट्ट

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तुम्हारी स्मृतियों का आलम्बन लिये,
गर्वित हो चलती हूँ जीवन पथ पर
तुम ही तो हो-जिसने चुन डाले,
अपनी पलकों से मेरी राहों के कंकर
निज स्वार्थ से विमुख विलग हे!
आलंबन में लिये- तृष्णा मिटाते निर्झर
तुम ही तो हो जो बिना शर्त के
पोषित करते हो स्वप्नों के नवांकुर
शिथिल कभी गतिशील कभी
प्रफुल्ल कभी उन्माद के कभी स्वर
मधुमास के आते ही जैसे-
सुगंध की रट लिये होंठों पर निरंतर
तुम ही तो हो जिसने मृत देह में
जीवन प्राण फूँके प्रतिपल आकर
अंतिम संध्या जीवन की जब होवे,
और शेष नहीं होगा कोई भी प्रहर।
अंतस् में पवित्र कामना ये ही रहेगी,
संग तुम्हारा, स्पर्श तुम्हारा अधर पर !