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मिरी चाहत, मिरी राहत, मिरी जन्नत तुम हो / विजय 'अरुण'

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मिरी चाहत, मिरी राहत, मिरी जन्नत तुम हो
लाख अफ़साना हूँ मैं, मेरी हक़ीक़त तुम हो।

यूं तो सब ख़्वाब मिरे एक से हैं बढ़ कर एक
ये मगर सच है कि इन ख़्वाबों की ज़ीनत<ref>शोभा</ref> तुम हो।

इश्क़ का इश्क़ परस्तिश की परस्तिश ठहरी
मिरे मन्दिर की चमकती हुई मूरत तुम हो।

मिरा आकाश को छू लेना हुआ यूं मुमकिन
मैं ने जब देख लिया धरती की अज़मत<ref>बड़प्पन</ref> तुम हो।

मैं जो जी रहने पै आमादा हुआ करता हूँ
इस के पीछे है शारारत, वह शरारत तुम हो।

मिरे दरवाज़े पै हर बार रिया<ref>धोखा</ref> ही आई
हो मुआफ़ी कि न पहचाना, मुहब्बत तुम हो!

आँखें बेअश्क हैं कब से तिरी ज़ुल्फ़ों की क़सम
जो बरसती है घटा बन के वह रहमत तुम हो।

इक ज़रूरत है ये दुनिया, हो मगर साथ 'अरुण'
क्या ज़रूरत की ज़रूरत है, ज़रूरत तुम हो।