भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गंध तुम्हारी / संजीव ठाकुर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:08, 23 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव ठाकुर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
हर रोज़
अटके रह जाते थे शब्द
ओठों में
तुमसे मिलकर आने के बाद
और छा जाती थी
गंध तुम्हारी– मेरे चारों ओर!
अंतिम बार
सीढ़ियों से उतरते
तुम्हारे पैरों की तरह
ठहर गए थे शब्द
रह गई थीं बातें शेष
जो कभी कही नहीं गईं!
गंध तुम्हारी
तुम्हारी अमानत तो न थी
फिर क्यों उसे
अपने में कैद कर लिया?...
मैं अब भी
महसूस करना चाहता हूँ
गंध तुम्हारी
अपने चारों ओर
आ-ओ!