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समाजवाद / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

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बूड़ल समाजवाद सगरो हे राजवाद,
कोई नाहीं चैन पावे कलह विवाद में।
हाट बाट घाट में भी चेहरा खिलल कहाँ,
डूबल समाज ई घिरल अवसाद में॥
दूसर के बखरा के लूटे औ खसोटे लोग,
बटमार बाट में ही थूरे उन्माद में।
करम धरम नाहीं छोड़ के विवेक सब,
पाप करे घन घोर घिरके प्रमाद में।

होव हे बलात्कार मासूम के कटे मुंड,
धधके हे भोगवा के अगिया विसाल रे।
राहे बाटे डाकू के गिरोह घूमे चारों ओर,
लगे मानो घूमे ई तो काल विकराल रे।
सोसन दमन में ही जिनगी बितावे रोज,
दुराचार में फँसल लोगवा बेहाल रे।
मानव तो राकस के रूपवा बना के दौड़े,
देसवा में रहे नाहीं कोई खुसहाल रे॥

सोच न विचार करे स्वारथ में लीन रहे,
चाहे नाहीं दूसर के हित कलिकाल में।
करम वचन मन एक नाहीं रहे कभी,
रहे बाँध जनता के घेर महाजाल में।
साँच के भी झूठ कहे झूठ के बनावे साँच,
आठो जाम रहे लीन कपट कुचाल में।
धमकावे बार-बार हड़पे जजतवा के,
जोरू औ जमीन के भी गरसे अकाल में।

महामारी लेखा घोर फैलल हे दुराचार,
अनाचार के ही लोग कहे सदाचार हे।
ढोंगी औ पाखंडी दंभी सगरो दहाड़े रोज,
उपहल देसवा से सब उपचार हे।
रीति और रिवाज तोड़े करे मनमानी रोज,
कहीं नाहीं केकरो तोड़े करे मनमानी रोज,
ढँचवा बिगाड़े ऊ समजवा के दिनरात,
कुविचार के ही कहे सदा सुविचार हे।

मानी के न मान कहीं साधु के न सनमान,
गुरु औ पुरोहित के पूजे न उदार हो।
सब के समान भाग मिले नहीं देसवा में,
कहीं जले घी के दीया कहीं तो अन्हार हो।
जिनगी बनल ई तो बड़का पहाड़ लेखा,
जुड़े नाहीं माँड-भात दुखवा अपार हो।
ससरल जिनगी हे रौदवा में छाँह लेखा,
रखे नहीं आज कोई जिनगी सँवार हो।

प्रेम के जगहिया में घिरना घिरल भारी,
मिले नहीं जिनगी में केकरो दुलार हो।
मिले न मजूरी ठीक कइलो पे काम रोज,
देवे लागी चाहे नाहीं बनियो उधार हो।
डेरा न बसेरा कहीं ठौर न ठिकाना मिले,
गरीब के लौके इहाँ सगरो अन्हार हो।
सजग अगोरा नाहीं मिलल न देसवा के,
दीखे न इँजोर कहीं भेल न सुधार हो।
गढ़े ला समाज के हे केकरो न दरकार,
जनता के बगिया तो सगरो उजाड़ हो।

आल-जाल में ही खाली नेतवा मगन रहे,
चारों ओर से लगौले कँटवा के बाड़ हो।
पीए ला न पानी मिले कहीं न अनाज भैया,
धर के दबोचे बाढ़ भीसन सुखाड़ हो।
उजड़ल घरवा के छनिया उदास लगे,
परदा न दीखे कहीं टूटल किवाड़ हो।

बूढ़वो कुराह चले राह न बतावे कोई,
नेतवा कुसासन के करे गुनगान हो।
छँटल अन्हेरा नहीं भेल न इँजोर कहीं,
हाबी अफसरसाही सूखल परान हो।
घरबे में घुसल हे चोर बरजोर कहीं,
हारल तबाह लोग करे न बखान हो।
भागल हे बुलबुल उल्लू के बसेरा भेल,
करे ला इँजोर कहाँ आवे दिनमान हो।
लोभ मोह इरखा के बादल घिरल घोर,
इन्दर समान सुख पावे, बड़ लोग हो।
गींजल ई जनता के अँखिया से लोर ढरे,
एकरा न जिनगी में मिले सुखभोग हो।
दीन हीन जनता के बखरा भी लूटे लोग,
घेरले हे एकरा के सगर से सोग हो।
रिकटल जिनगी में सुख के दरस कहाँ,
खेती लेल हल औ जुआठ के न जोग हो।