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बसंत के बहार / जयराम सिंह
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ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले
धरती अइसन तूं भी सोलहो सिंगार ले॥
(1)
आमा के बौर मौर राजा बसंत के,
कुहुक कुहुक कोयलिया बोलावे कंत के,
हावा बांटे फाहा तरह-तरह गंध के,
स्वागत में दुल्हा के भौंरा गुंजार दे।
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले॥
(2)
दिन में सूरज देहै सोना के नथिया,
रतिया में चांद बुने चांदी के मचिया,
रबिया के मेला में तीसी के नचिया,
देखै ले चल गोरी रूप के संवार ले,
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले।
धरती अइसन ... सिंगार ले॥
(3)
धरती के देख मने मन बिहुंसऽ हे कविया,
जेसे बिहुंसे किसान गदराते लख रबिया,
अंग अंग भरल कसल मसकल जा हैऽ अंगिया,
घिघिया के अरज करेऽ,
मार से उबार ले।
ई बसंत के बहार तूं तनि निहार ले।
धरती अइसन ... सिंगार ले॥