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अंगिया तीतल रे / जयराम सिंह
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एते बरसल मेघ कि धरती सीतल रे।
एते ढरकल लोर कि अंगिया तीतल रे॥
(1)
हरदम सोंच फिकिर के बादर,
अंखिया के आकास में,
मन के पपिहा हरदम बोले,
‘पीउ’ ‘पीउ’ मिलन-पिआस में,
बुझल नञ हमर पियास, जलद के भरल गगरिया रीतल रे।
एते बरसल ... शीतल॥
(2)
बदरा गरजल कजरा लरजल,
भरल आँख के कोर रे,
बिजुली चमकल या साँपिन,
डँसलक जे भेल इंजोर रे,
हम डंसाल सुधि के साँपिन से विष अंटकल दिन बीतलरे।
एते बरसल ... शीतल॥
(3)
रिम-झिम बरसे बूंद सुहागिन,
सेज बिछा बरसात है,
ऊ औरत बड़ भागिन जेकर,
बरसा में वर साथ हे।
हम विरहिन के अंखिया बरसे में बदरा से जीतल रे॥
एते बरसल मेघ कि धरती शीतल रे।
एते ढरकल लोर कि अंगिया तीतल रे॥