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सबका अपना-अपना मन है! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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सब का अपना अपना मन है!

अलि बँध जाता पंकज-रस में,
व्यवहार-कुशलता क्या इसमें?
पर उसकी तो यह मुक्ति मधुर, जिसको जग कहता बन्धन है!
सब का अपना अपना मन है!

निःसीम भरे सागर कितने,
दिन-रात बरसते मेघ घने!
पर, प्राण पपीहा दे देता, पाता न अगर निज जलकण है!
सब का अपना अपना मन है!

अंगार चकोर निगलता है,
बेमौत ज्वाल समझता है, वह प्रेमी का पंकज-वन है!
सब का अपना अपना मन है!

जग में मुझको जो कुछ भाता
उससे मेरा शाश्वत नाता!
तुम जेठ कहो, आषाढ़ कहो-मेरे मन का वह सावन है!
सब का अपना अपना मन है!