भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बगैचा के दरद / दीनबन्धु

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:56, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीनबन्धु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatMagahiR...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सउँसे बगिया काँप रहल हे, थर थर एक दम डर से।
देखऽ पेड़वन उखड़ रहल हे कत्ते, खोद खोद के जड़ से॥
जेकरा बाबा दूध पटइलन, बुतरु अइसन प्यार से,
सेकरा पोता काट रहल हे, आरी टॉगी वधार ले,
अइसन निरमोही तूँ काहे, की जलम तोर पत्थल से॥
आम, जमुनियाँ, पीपर, पाँकर, महुआ टुप टुप रोवे,
कटहर, बरगद, नीम बहेड़ा, गूलर अँखिआ धोवे,
कते किरतघन अदमी हो गेल, ई राछस सब नर से॥
जेकरा फर फुल मेवा देलूँ, ठंढ़ा सीतल हावा,
भोला अइसन सब विख पीके, बाँटू अमरित दावा,
तइयो नेह छोह न´ तनिको, की कहिअय बरबर से॥
हमरा उजड़ गेला से अदमी, तूँ हूँ न´ बच पइगा,
हावा पानी सब हमरे से, कइसे जान बचइआ,
हम साथी तूं घाती हम्मर, बदल´ अपन नजर के॥