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सोचता है गांव / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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सोचता है गांव!
होली आ गई है
पर न खिल पाये अभी तक
फूल सरसों के,
हवाएं हैं
बहुत गुमसुम
उदासी छा रही है
हर तरफ!
कोई हुमक
उल्लास
चेहरों पर नहीं है,
मुर्दनी-सी दीखती है
अब
जहां देखो
वहीं पर!
सोचता है
और थककर
बाल अपने नोंचता है गांव!

टोहता है गांव!
होली आ गई है
पर कहां हैं लोग सारे,
सो रहे हैं या कि फिर
दुबके हुए हैं तलघरों में!
क्यों नहीं कोई निकलता
खोल से बाहर तनिक भी
हैं अभी जिन्दा कि
सब संवेदनाएं मर चुकी हैं
नब्ज चलती है
कि डूबी!
टोहता है
बाट फिर बीते दिनों की
जोहता है गांव!

पूछता है गांव!
होली आ गई है
पर नहीं क्यों
झांझ, ढपली, ढोल बजते
या कि मंजीरे खनकते
लोकगीतों के पुलकते स्वर
सुनाई क्यों नहीं देते अभी तक
घुंघरुओं की वह मधुर रुनझुन
कहां है!
पूछता है
किन्तु कुछ उत्तर न पाकर
टूटता है गांव!

जूझता है गांव!
अपने आप से
परिवेश से
वातावरण से
या प्रदूषण का जहर
पीते हुए पर्यावरण से
या हवाओं के अचानक ही
बदलते आचरण से
क्या हुआ आखिर
भला यह क्या हुआ है!
जूझता है
और रह-रहकर
पहेली बूझता है गांव!
अक्सर
सोचता है
पूछता है
जूझता है गांव!
-होली-17 मार्च, 1995