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बच पाई है किसकी अस्मिता / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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पिता

सुनती हो!
आज भी नहीं आया कोई खत!
एक और खाली दिन
हम-तुम ने दिया बिता!
दुखती रग-सी मां से बोले धीमे-धीमे
पोर-पोरटूटते तनावों जैसे पिता!
झर गये अंधेरे में
हरसिंगार, गुलमोहर,
तुलसी मुरझाई है
गाजगिरी शाखों पर;
धूप में झुलसती है
अपनी अपराजिता!
क्या होगा यों ही
मीठे सपने बुनने से,
क्या होगा बांच-बांचकर
अब भृगुसंहिता!

मां

सुनते हो!
अब झूठी आस न बांधो मन में!
दिन क्या पूरा जीवन
हम-तुम यों रहे बिता!

फटी हुई छाती-सी मां बोली सहमी-सी
मुंह लटका, सुनते घायल सीने-से पिता!
कौन भला कब लौटा है
जाकर महानगर,
नदियों को सदा
लीलता आया है सागर;
बच पाई है आखिर कब
किसकी अस्मिता!
अच्छा यह होगा अब
मन को समझा लें हम,
वरना, यों ही धधकेगी
यह ठंडी चिता!

पुत्र

सुनते हैं!
आज तक नहीं आया है वह क्षण!
जो मैंने तुम सबको
विस्मृत कर, दिया बिता!
ओ मेरी छीजती हुई आशा जैसी मां!
ओ मेरे टूटते मनोबल जैसे पिता!
रिस रहा यहां हर पल
सुलगते सवालों में,
मेमना डरा हो ज्यों
हिंस्रनख शृगालों में;
है जिजीविषा मन की
क्षत-विक्षत, वंचिता!
स्वप्नवती आंखों में
शेष किन्तु किरणें हैं,
शायद बच जाये
आहत रचनाधर्मिता!
-30 अगस्त, 1995