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बुनती हैं सलाइयों पर/ अनन्या गौड़

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बुनती हैं सलाइयों पर
औरतें
नित नए ख्वाब
सिलती हैं उधडी कतरने...
बोती हैं मन के गमले में
एक गुलाब
सींचती हैं उसे
दर्द की बूंदों से...
रेशम के लच्छों-सी
उलझी ज़िन्दगी को
अधपकी धूप में बैठ
सुलझाती हैं
 नेह की ऊष्मा से...
नवाकर दे कर
करती हैं पोषित
कच्चे घड़े को
भरती हैं उसमे प्रान...
बांधती हैं पग में
प्रतिबंधित घुंघरू
थिरकती हैं
अपनी ही ताल पर...
हरी अमियाँ जैसे अधकचे ख्वाब
सहजती हैं
हृदय रुपी मर्तबान में...
और
फिर एक दिन
पहन लेती हैं पंख
भरती हैं ऊँची उड़ान...
उसके पश्चात्
नहीं रुकते उनके कदम
तत्पश्चात वह
छू ही लेती हैं आकाश!