भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फागुन / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:54, 16 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता जैन |अनुवादक= |संग्रह=यह कव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों में वन देवी ने
बालों को खोला है
फूलों में गूँथ कर
लट-लट में टाँका है

लिये संग में वनबाला को
देख रहीं अपनी छवि को
खड़ी ताल पे ताली दे-दे
उड़ारहीं सारस को

देख रहीं वे जिधर लता, वह
उमड़-उमड़ आती है
रख देती हैं पाँव जिधर वे
वह धरा सिहर जाती है

क्या तुमने भी मेला यह
रंगों का देखा है?