भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छाले / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:35, 16 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुनीता जैन |अनुवादक= |संग्रह=यह कव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आँख मींच लो
अभी न सोचो
सोचेंगे कल
करने से क्या
हुआ कभी कुछ
पड़े रहे जब
तले वृक्ष के
पूरा दिन ही-
हाथों में थे मोती उजले
शाम ढले जब
मुट्ठी खोली
कभी दौड़ते रहे
सड़क पे
लेकर छेनी और कुदाली
खोद-खोद दिन गए
दिनोंदिन
हाथों थे, हाथों के छाले
खाली