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रविवार / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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ढलती दोपहर
तार पर सूखते कपड़ों के बीच से
कैसी तिरछी आती
अपने पलंग पर यह धूप
खिड़की में झूलते
चम्पा के पत्तों की परछाई
रसोईघर में कैसी नाचती
गिलहरी गमलों के पास आकर
कुछ सोच-सोच जाती
चमकते रहते हैं पर्दे रेडियम की तरह
घर में फैलती ये लंबी छायाएँ
और बचे हिस्सों पर धूप की कूचियाँ
कितने अनजान रहते हम
इस दोपहर से
घर भी कितना अपरिचित रहता है
दिन के वक़्त हमसे