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रात / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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रात मेरी विकलांगता है
मैं इस रात से भागता हूँ
जब लौटकर आता हूँ
अपने हताश अकेलेपन में
शरीर को खूँटी पर टांग देना चाहता
पर ये शरीर उतरता ही नहीं
दिन भर शरीर इसी भुलावे में रखता
कि कितना निर्लिप्त है
कितना अनासक्त
पर रात होते ही
इसमें कुछ जागता है
रजनीगंधा होती है देह
यह धीरे-धीरे खिलती है
गमकती
और गुनगुनाने लगती
मैं सहम कर
इस देह को उतार फेंकना चाहता हूँ
मेरा बिस्तर एक लंबा रेगिस्तान है
अपनी देह की गर्म रेत में
मैं धँसता जाता
पिघलने की हद तक