भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धातु रोग / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:14, 21 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हेमन्त देवलेकर |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रेल की खिड़की से देखता हूँ
घरों की पीठ पर लिखे
धातु और गुप्त रोग के
शर्तिया इलाज के विज्ञापन
एक गाँव से चढ़ते हैं दूधवाले
चौंकता हूँ उनकी टंकी देख
जो अब प्लास्टिक में बदल गई है
कानों में देर तक गूँजती है
लोहे की टंकार
आघात की तरह यह याद
चलती रेल में खँगालने लगा
कि धातुएँ अब कहाँ कहाँ बची हैं
एक लाचार आश्चर्य कि
ज़िंदगी से बहुत गुप्त रूप से
गायब होने लगी हैं धातुएँ
उन गुम धातुओं के लिए
कोई वैद-हक़ीम दिखाई नहीं देता
रेल चल रही है