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मुखौटा / राजेश शर्मा 'बेक़दरा'
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जब ढालता हूँ
अहसासों को शब्दों के साँचे में तो अक्सर
कविता में नजर आने लगती हैं
एक उदासी
प्रश्नचिन्ह उठते हैं
इस उदासी पर
मैं हो जाता हूँ खामोश!
जब निकलता हूँ
दुनिया की इस भीड़ में
तो अक्सर ख़ुश रहता हूँ
असल मे भीड़ करती है
हमे अक्सर मजबूर, मुखोटे बदलने को
ओर अकेले में तुम मुझे कर देती हो
हमेशा उदास!