भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धन कि मन / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:32, 24 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मथुरा प्रसाद 'नवीन' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

की खोजऽ हा धन कि मन
धन तो
हमरो पड़ोसी के बड़ी हे,
लेकिन धन पा के
घर भर पागल हे
एकर कौन जड़ी हे?
धन जे बढ़ावऽ हे,
ओकरा के नै
आँख पर चढ़ावऽ हे?
ई तो है अपा-अपी
तोरा की तऽ तोरा की,
एक दोसर के पीठ पर टपा-टपी
धन की नै करऽ हे,
देख रहला हे
कि धन ले
आपसे में लोग लड़ऽ हे
नै आबऽ हो आह
कि कैसें होबऽ है बेटी के बिहाअ
हम्हूं कैलूँ हें बरतुहारी,
बचलै खाली घर
आउ टीन के लोटा थारी
अब देखऽ ही
बड़का लोग अकबकी,
घरों पर लगल हे टकटकी
के हियाँ दिल दे हे?
बेटी के बिआह में
बेटा बाला
चमड़ी छील दे हे
जब आबऽ हे
अपन बेटी के बारी,
फेन ओकरो उहे बिमारी
ई दहेज
सब के देतो रसातल भेज
दमड़ी के व्यापार
गोर चमड़ी के व्यापार
अइसन अजनबी
बन गेले हे ई समाज
के कहऽ हे अनुभवी
बन गेले हे समाज?