भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छल / केशव मोहन पाण्डेय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:46, 2 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव मोहन पाण्डेय |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाव त रहे जगरनिया
बाकिर काटत बिपत जिनगी के
जोहत बहाना बरतन माजे के
फूँके के बेहया के बास वाला चूल्ह
जिनगी धुँआ हो गइल
एने-ओने उधियात
कातिक के भुआ हो गइल।
बाबूजी के दिहल नाव
तब ईयाद आइल
जब टँकाए लागल
सरकारी कागद में
तब हँसलस सपना
कींचर में दबल
आखियाँ के कोर में
कि हमरो घरे
आई डाक से नोट
बूढ़ा-पिन्सिन के।
नाचे लागल मन
कि हाथ पर हमरो
आई दू पइसा
सार्थक हो जाई
बाबूजी के दिहल नाव
भर जाई
जिनगी भर के सगरो घाव।
हुलास मारे लागल
चेखुर नियर
झोंटा में लुकाइल
रेखा ललाट के
कि अब ना बुतावे के पड़ी पियास
ओस चाट के।
लोकतंत्र के कारन
गउँवों में चुनाव आ गइल
एक बेर फेरु सामने
जगरनिया नाव आ गइल
बूढ़ा-पिन्सिन बढ़े वाला बा
वादा चुनाव के रहे
टल गइलऽ
एक बेर फेरु
जगरनिया के साथे
पहिलहीं नियर छल भइलऽ।