भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेंगुची चलल ठोंकावे नाल/ केशव मोहन पाण्डेय
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:49, 2 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव मोहन पाण्डेय |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
निहुरत उचकल
गोड़वा मुचकल
ओहू में पूछत सबके हाल
बेंगुची चलल ठोंकावे नाल।
ताल तलैया सूखत रहेले
उचरत चिरई कुछूओ कहेले
असरा पर बा गिद्ध के पहरा
पूरवइया पगली हो बहेले
मचल मचल के
हथवा मल के
किरीन बजावे आपन गाल।
दुअरा पर बा ऐपन लागल
श्रद्धा ले चिंता सब भागल
कहिया ले त सास फटकीहें
अँजुरी भर के अनजा माँगल
जोर लगा के
बिपत भगा के
मँगरु आज गलइहें दाल।
बदरा के चदरा तानल बा
ओस बँड़ेरी पर बान्हल बा
लाल पताका आंगन लहरे
लाली गइया के छानल बा
जोर लगाके
खूँटा तूरे
उतर जाय भले देंह से खाल।
माई हिरदय के हाल कहेले
दुनिया के जंजाल कहेले
मन मारल देखे बेटा के तऽ
करेजा पर हाथ उछाल कहेले
अउर कहेले
देख के हमके
तुहींऽ हमरो असली लाल।