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अभिव्यक्ति का संकट / जगदीश गुप्त

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बहुत ही हलका लगेगा
’मैं तुम्हारा और तुम मेरे’, — कहूँ तो
और यदि यह कहूँ
’मेरे बीच तुम हो, मैं तुम्हारे बीच हूँ’
तो भी नहीं यह कथन इच्छित अर्थ देगा।

’लग रहा ऐसा कि जैसे
है जहाँ तक भी हृदय का, चतना का, प्राण का विस्तार,
उस सब में तुम्हीं तुम हो —
तुम्ही पर है टिका सब, दूसरा कोई नहीं आधार,
यह दुख-दर्द, हर्ष-विषाद, चिन्ता, जय-पराजय,
स्नेह, ममता, मोह, करुणा, ग्लानि औ’ भय,
तुम्हीं से उत्पन्न होते, तुम्हीं में लय’
भावमय यह कथ्य,
इसमें है बहुत कुछ तथ्य —
पर अतिरंजना भी है।

’जिस तरह कुछ भी नहीं है मित्र मेरा — स्वयम् से,
तुमसे, तथा तुम पर समर्पित अहम् से,
भिन्नता होगी न वैसे ही तुम्हारे पास’
ऐसा ही मुझे विश्वास,
शायद इस तरह से कह सका होऊँ, हृदय की बात
पर क्या सही है यह — कह सका मैं ठीक पूरी बात?