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बिखरा हुआ अहम् / जगदीश गुप्त

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मैं बिखर गया हूँ
अपने ही चारों ओर।
मेरा एक अंश — सामने के नीम की
नंगी टहनियों में लगी उदास पीली
पत्तियों के बीच उलझ गया है —
और उन्हीं के साथ
पतझर के रूखे किन्तु ख़ुमारी भरे
झोंकों की चोट से — एक एक कर,
नाचता-गिरता-लहरता थिरता
जटाओं जैसी भूरी सूखी धूल भरी घास पर,
                  उतर रहा है — उतर रहा है।

मेरा दूसरा अंश — वर्षा के बाद के बचे उन
खोए-भटके-हलके-दुधियारे बादलों के साथ
आकाश में डोल रहा है,
जिनमें न जल है न जलन, न ओले न गलन,
कभी कभी सियाह चीलें मण्डराती हुईं
इधर से उधर निकल जाती हैं
किन्तु वे ठहरते नहीं — रुकते नहीं।

मेरा एक तरल अंश — गंगा की लहरों पर दिनरात तिरता है।
                                डाण्डों के साथ साथ उठता है, गिरता है।
उनकी कोरों से टपकती बून्दों सा,
वृत्त बनाता हुआ — फैल जाता है — फैल जाता है।

इन सबसे अलग एक गहरा अंश — मेरा ही
चान्द के सीने के उन दाग़ों में जा छिपा है
जिन्हें चान्दनी रूपजल से धो धो कर हार गई।
पर जो अमिट थे — अमिट हैं,
मेरे इन सब बिखरे बिखरे अंशों को
                        कौन सँजोए
मुझे कौन पूरा करे,
पीली पत्तियों के फैलते जलवृत्तों में कौन बान्धे
                                         बह जाएँगी वे।
काले दाग़ों पर बहके सफ़ेद बादलों को कौन साधे,
                   ढक जाएगा चान्द, खो जाएँगी चीलें।