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अन्धेरा और पथरीला दर्द / जगदीश गुप्त

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        रूको मैं तुम्हें वह सब दिखाऊँगा जो मैंने देखा है
        स्वयं अन्धेरा हूँ तो भी ज्योतिदान दे सकता हूँ
ऊपर निहारो,
        अनन्त आलोक में तैरते हुए स्वप्न के टूक जैसा स्वर्गलोक है
        जिसमें देवताओं के मुकुट
        और
        अप्सराओं के केयूर झलकते हैं
आँखें झुकाओ,
        दूध जैसी चान्दनी में डूबा-डूबा
        उनींदी अलसाहट-सा अन्तरिक्ष है
        जिसमें सैकड़ों सूरज और चान्द झिलमिलाते हैं
निगाहें नीची करो,
        धुएँ की स्याह चादर से ढकी विजड़ित-सी धरती है
        जिस पर मटमैली छायाएँ घूम रही हैं,
        अपना-अपना दर्द लिए मौत की परछाँईं-सी
अब नज़र फिर ऊपर करो — धीरे-धीरे
धरती से अन्तरिक्ष और अन्तरिक्ष से स्वर्ग की ओर
        पर यह क्या तुम तो स्वयं विजड़ित हो गए
        उठाओ दृष्टि,
        दृष्टि ऊपर उठाओ,
        नहीं उठाते,
        नहीं उठा सकते,
        अफ़सोस कि तुम्हारी भी आँखें पथरा गईं
                                धरती के पथरीले दर्द को छूकर
                                मैं तो कब का अन्धा हो चुका हूँ
                                लोग मुझे अन्धेरा कहते हैं।