भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभिलाषाओं के दिवास्वप्न / अंकित काव्यांश
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:43, 7 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंकित काव्यांश |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अभिलाषाओं के
दिवास्वप्न पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाजी जारी है।
हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार बार सब कुछ पानी में परछाई।
हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।
जो कुछ
लिख गया कुंडली में वह टाले कभी नही टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नही जलता।
हम रोज
जीतते हैं कलिंग हम रोज बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अन्तर्ध्वनियों पर भारी है।