भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अभिलाषाओं के दिवास्वप्न / अंकित काव्यांश
Kavita Kosh से
अभिलाषाओं के
दिवास्वप्न पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाज़ी जारी है।
हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार बार सब कुछ पानी में परछाई।
हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।
जो कुछ
लिख गया कुंडली में वह टाले कभी नहीं टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नहीं जलता।
हम रोज
जीतते हैं कलिंग हम रोज बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अन्तर्ध्वनियों पर भारी है।