Last modified on 7 मई 2018, at 23:48

मन-नगर में है दिवाली / अंकित काव्यांश

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:48, 7 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंकित काव्यांश |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जगमगायी
स्वप्न कुटिया, मन-नगर में है दिवाली।
आज तुमने ज्योत्स्ना बन, भर दिया मुझमे उजाला।

गोद भर
मिट्टी ज़माने की धधक में
कई सालों तक तपी तब दीप जन्मा।

देख तुमको
यूं लगा बाती मिली फिर
कुलबुलाईं कामनाएं अग्निधर्मा।

ज्यों किसी मृग ने
हमेशा से सुपरिचित गन्ध पाली
उस तरह मैंने तुम्हारा रूप यादों में संभाला।
आज तुमने ज्योत्स्ना बन भर दिया मुझमे उजाला।

देह-वन में
इक अपूरित प्यास फिरती
सोचती वनवास का कब हो समापन।

आज तक
लांघी न कोई लखन-रेखा
इसलिए कि हो न जाए कम समर्पण।

आसुँओं के पार
झिलमिल दृश्य में तुम ने जगह ली
आज से मैं देहरी हूँ और तुम हो दीपमाला
आज तुमने ज्योत्स्ना बन भर दिया मुझमे उजाला।