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क्या कहोगे / जगदीश गुप्त

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क्या कहोगे?
भर रहा है नीर टूटी नाव में —
यह जानकर भी
उसी पर आँख गड़ाए
 सन्धि पर आता हुआ जल देखता-सा
डूबने की कल्पना से मुक्त
अपने आप में डूबा
अडिग — निश्चेष्ट जो बैठा हुआ हो छोड़कर पतवार
खेवनहार
उसको क्या कहोगे?

नाव को मँझदार तक वह साथ लाया —
किन्तु यदि उस पार जाने के प्रथम ही
नाव का कोमल कलेवर
नीर के आवेग के आगे हुआ लाचार
तो क्यों मान ले वह इसे अपनी हार
और ऐसे में अगर कुछ सोचकर वह
छोड़ बैठा हो स्वयं पतवार
उसको क्या कहोगे?

क्या कहोगे यदि कहे वह
देह मेरी नाव
मेरे बाहु ही हैं डाण्ड
मेरा शीश ही पतवार
अपनी शक्ति से ही चीरकर मँझधार को
होना मुझे है पार

शीघ्रता क्या?
तैर लूँगा
किन्तु इतनी दूर तक इस नाव को मैं साथ लाया
डूब जाने दूँ इसे पूरी तरह
लूँ देख इसके हृदय पर यह नीर कैसे
कर रहा अधिकार
कैसे घेर कर मँझधार का आवेग
इसको कर रहा लाचार
देखने को फिर नहीं यह सब मिलेगा
देख तो लूँ
फिर भुजाओं के सहारे तैर लूँगा
डूब भी जाना पड़े यह देखने के बाद
तो होगा नहीं अफ़सोस,
डूबा जिस तरह साथी,
नहीं उस भाँति मैं डूबा
चलाए हाथ, लहरों से लड़ा
मानी नहीं मैंने पराजय अन्त तक
विश्वास अपने पर किया
तो क्या हुआ डूबा अगर
क्या पार जाने से इसे कम कहेगा कोई?
           सच बताओ
           डूबती-सी नाव के निश्चेष्ट खेवनहार की
           इस तरह की बात सुनकर क्या कहोगे?