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दूर से आते ठहाके / नईम

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दूर से आते ठहाके,
रह गए हम कसमसाके।

बियावानों, कंदराओं,
खंडहर होती गढ़ी से,
कुरु-सभाओं से सतत या
अतिक्रमित सीतामढी से;

वन नहीं आबादियों में
कर रहे हैं लोग हाँके।

क्या पता ये हास के,
परिहास के या व्यंग्य के हैं,
या अमन की घाटियों में
कनसुरे स्वर जंग के हैं;

आज तक आए नहीं
खोटे समय हमको बताके।

मौत के बरअक्स बरहम
चुप्पियाँ साधे हुए हम,
मुल्क़ की तो खैर संतो!
खुद-ब-खुद आधे हुए हम;

खोदनेवाले कभी भी
कब्र में अपनी न झाँके।
दूर से आते ठहाके,
रह गए हम कसमसाके।