भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंतरंगा से ख़ारिज / नईम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:40, 13 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अंतरंग से खारिज,
ख़ारिज
हम गलियारों से।
निकल चलें!
खाई-खोहों
पत्थर के द्वारों से!
नवाचार की नई संहिता-
पढ़ी न जाएगी,
नेपथ्यों की कठिन चढ़ाई
चढ़ी न जाएगी।
रुके रहे तो
राजभवन के पहरेदारों से,
हमें जूझना होगा।
फूहड़ वादे, नारों से।
बीहड़ को बस्ती में लाकर-
दबे स्वरों गाएँ,
भला नहीं लगता ताजे़ को-
बासी कर खाएँ;
खै़र-ख़बर पूछंे जन से,
भेंटें परिवारों से।
अगर कहीं हो खुदा
बचाएँ इन दरबारों से।
सिर हो सही-सलामत-
धड़ पर सीने तने हुए,
हाथ-पाँव कीचड़ में चाहे
हों फिर सने हुए।
बचें परस्पर की
तू-तू मैं-मैं, तक़रारों से,
शहरों से दो क़दम
कोस-भर इन बँसवारों से।