भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लटके हुए अधर में जब दिन / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:52, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लटके हुए अधर में जब दिन-
सुधियाँ क्या लेंगी धरती की,
ख़बरें क्या देंगे आकाश की?
नहीं हुआ सूरज हरकारा या फिर हॉकर,
कोई ख़त अख़बर नहीं देता अब लॉकर;

डूबे हुए ज़हर में जब दिन-
ऊष्मा क्या देंगे धरती को
किरनें क्या देंगे प्रकाश की?
अनुभूते को रचा और साहित्य किया था,
गया अकारथ, जो अर्जित स्वायत्त किया था;

भटकी हुई डगर से अब दिन-
चीरेंगे छाती धरती की,
फिजाँ विनाशेंगे अकाश की।
भूगोलों से परे विषय हैं ये खगोल के,
घर की खेती नहीं, पड़े हैं हमें मोल के।

बजते मृत्यु गजर से ये दिन-
क्या होंगी शामें धरती की,
सुबहें क्या देंगे उजस की?
लटके हुए अधर में जब दिन-
सुधियाँ क्या लेंगे धरती की,
खबरें क्या देंगे अकाश की।