भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भूलचूक की मुआफ़ी चाहूँ / नईम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:19, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भूलचूक की मुआफी चाहूँ।
अधिक लिखे पर ध्यान न देना।
मोतीचूर न माँग रहे जन,
चाहे है बस चना-चबेना।
हूँ दलाल एजेंट नहीं मैं,
केवल उनका पैरोकार हूँ,
अपने ही पैरों-पीठों
पर मैं सवार हूँ;
झमकाए अब भी कबीर की
भरे बज़ारों ठगिनी नैना।
नैतिक और अनैतिक में हम
पड़े हुए झख मार रहे हैं
इनसे परे मुल्क की क़िस्मत
प्रभु जी आप संवार रहे हैं।
कोयल के अंडे कौवों को
आज पड़ रहे हैं क्यों सेना?
भला आपसे अधिक कहाँ मैं
छोटे मुँह से कह पाऊँगा?
हूँ कगार का वृक्ष कभी भी
आहिस्ता मैं ढह जाऊँगा।
बंद पींजरों में है अब भी,
मुक्ताकाशी तोता-मैना।