भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूछ रहे हो क्यों ग़ैरों से / नईम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:31, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पूछ रहे हो क्यों ग़ैरों से?
हम ही तुम्हें बता देंगे।
होगा कहाँ नईम इन दिनों
सीधा सही पता देंगे।
था जो कभी मुदर्रिस, अबके खेत रहा वो,
चढ़ा खरादों पर अपने को रेत रहा वो।
परदे, चिकें याकि जाले जो-
ओट बने गर
अगर ज़रूरी लगा कहीं तो
हम ही उन्हें हटा देंगे।
होगा वो कवि, लगा नहीं पर कभी अलग से,
वाक़िफ रहा आप जैसों की वो रग-रग से।
सहज और साधारण है जो
नहीं कहीं से भी विशिष्ट जो
आप भले देते बैठें पर
हम क्यों भला हवा देंगे?
पुरस्कार-सम्मान-रहित अति साधारण-सा,
मुजरा करते नहीं मिलेगा वो चारण-सा।
अगर मिल गया धोखे से भी
आप भला क्यों कष्ट करेंगे?
अपने मुज़रिम को देहरी से
हम ही धता बता देंगे।