कुछ न कुछ तो करना होगा।
नाव मिले या नहीं रामजी।
लेकिन पार उतरना होगा।
धरे हाथ पर हाथ भला कब तक बैठेंगे?
पेट रहें खाली तो वो निश्चित ऐंठेंगे।
घर बैठे घाटे के भय से
आने वाले किसी प्रलय से
बाहर हमें निकलना होगा।
एक कमाए, घरभर खाए नहीं रहे दिन,
मेजबान अब परस रहे हैं रोटी गिन गिन;
ऋण हों या अनुदान शरण से-
दुर्योधन ही नहीं करण से,
क्रमशः हमंे उबरना होगा।
है हालत खराब दोजख़ हो या बहिश्त में,
उतर जायँ हो सके अगर जिंदा तिलिस्म में;
तिलकित करके भाल रक्त से-
अगर ज़रूरी हुआ वक़्त से-
पहले हमको मरना होगा।
अगर चितरते रहे चाव से
इनकी दुम
उनके दुमछल्ले।
तय है
ठीक समय पर जमकर
बोल नहीं पाएँगे हल्ले।
रहे जगाते, पर कब जागे?
सदियों से ये ऊपर वाले,
ठिये-ठिकाने/धरती पर जो
उन पर साँकल, पहरे ताले।
कभी न मिलने देंगे हमको
ये बिचौलिये
या वो दल्ले।
इतिहासों से ढूह खोह में
सोए भूत जगाने बैठे,
साफ-पाक बगुलों के जैसे
तट पर मूढ़ सयाने बैठे।
ये हमको
चुगकर मानेंगे
अगर पडे़ हम इनके पल्ले।
जलते प्रश्न/बुझते बैठे,
गड़ुये भर-भर तीरथजल से,
रस के बिम्ब प्रतीक
घिस गए
हंगामों में रक्तकमल से।
मरे हुओं को
मार रहे हैं
भद्रलोक के निपट निठल्ले।